गुजरात की खुशहाली और खुशमिजाज प्रगतिवादी गुजराती समाज के बारे मे काफी कुछ सुना था। अभी तक के जीवन मे कभी जाने का अवसर नही मिला। 4-जुलाई-2008, सुबह के करीब साढे तीन बजे, वडोदरा स्टेशन पर उतरा। गुजरात की ज़मीन पर यह मेरा पहला कदम था। उस समय नही पता था कि आने वाले कुछ महीनों मे यहॉ इतनी बार आना पड़ेगा कि यह शहर अपना सा लगने लगेगा। बड़ौदा या वडोदरा गुजरात का प्रमुख औद्योगिक शहर है। रहन-सहन के मामले मे देश के किसी भी बडे शहर से कम नही है। यहॉ आधुनिक और पारंपरिक दोनो विचारधाराओं का सुंदर समागम देखने को मिलता है।
ट्रेन से उतर कर रिटायरिंग रूम की तरफ जाते हुये, यात्रियों की सुविधा के कुछ इंतज़ाम देखने को मिले, जो बढ़िया लगे। देखकर लगा कि वेस्टर्न रेलवे के बारे मे जो सुना था, वह सच था। रात को ट्रेन मे आराम से सोया था, इसलिये नींद नही आ रही थी। रिटायरिंग रूम पहले तल पर, स्टेशन के मुख्य प्रवेश द्वार के लगभग उपर ही था। कमरे से निकल कर बारादरी मे चहलकदमी करने लगा। सामने ही कार / स्कूटर पार्किंग नजर आ रही थी। कुछ दूरी पर तिपहिया स्कूटर (ऑटो-रिक्शा) खड़े थे। दो-तीन चाय की रेहढी वाले नजर आ रहे थे। कभी कभार कोई वाहन आता जाता नजर आ रहा था। इसी तरह काफी समय निकल गया। करीब साढे पांच बजे नीचे उतरा। प्लेटफॉर्म पर चहल-पहल काफी थी। शायद किसी ट्रेन के आने का समय हो रहा था।
स्टेशन के बाहर आया। मांडवी मे किसी से मिलना था। थोडा चहलकदमी करते करते दो-तीन लोगों से पता किया। सबने यही बताया कि ऑटो मे बैठो, मांडवी पहुचो, पॉंच रूपये दे दो। पॉंच रूपये सुना तो दिल्ली के ऑटो किराया के बारे मे सोचने लगे। फिर एक सज्जन से पुछा तो समझ मे आया कि वैसे तो मांडवी करीब पॉच कि.मी. दुर है, और अगर अकेले बैठ कर जाना है तो किराया लगेगा बीस रूपये। लेकिन अगर हम साझे ऑटो मे जाते है (जिसमे चार सवारियॉ बैठेगी) तब केवल पॉंच रूपये मे काम चल जायेगा। खैर मांडवी पहुंच कर वापस आ गये। दिन भर स्टेशन पर गुजरा। बीच मे एक बार अलकापुरी और एक बार सायाजीगंज जाना पडा। हैरानी थी, यह सोच कर कि अभी तक एक भी साइकल-रिक्शा देखने को नही मिला था। दिल्ली के कुछ इलाको को छोड दे तो अभी तक मैने ऐसा कोई भारतीय शहर नही देखा, जहॉ साइकल-रिक्शा नही चलते।
14-जुलाई-2008 को वापसी के लिये ट्रेन मे बैठने के बाद दोबारा इस पर विचार किया। निर्णय नही कर पाया कि यह गुजरात की तेज रफ्तार का असर है कि कम गति वाली साइकल-रिक्शा बडौदा मे नही चलती। या फिर गुजराती लोगों की दयालु प्रवृत्ति जो दयावश उन्हे रिक्शा पर बैठने से रोकती है। इस सन्दर्भ मे एक गुजराती सज्जन से बात भी हुई। उनका कहना था, “गुजरात में पैसा बहुत है (इस बात पर शक की कोई गुंजाइश नही है) और इसी वजह से जो भी यहॉ काम की तलाश मे आता है, कुछ ही दिनो मे उसका पेट जरूरत से ज्यादा भर जाता है। यही वजह है कि यहॉ कोई भी शख्स साइकल-रिक्शा खींचने जैसे मेहनत के काम से बचता है।” बात मे दम तो था, लेकिन यह बात कितनी तथ्यपरक है इसका मुझे पता नही।
यह तो मेरी गुजरात यात्रा की शुरुआत है, अभी तो कई पडाव बाकी है। कई किस्से है। वो फिर कभी, अभी तो बस वेलकम टु वडोदरा!!!
September 30, 2008 at 19:52
हिंदी में ब्लॉग शुरु करने के लिए बहुत-बहुत बधाई। आपने यह जानकारी देकर मेरा और मेरे जैसे अनेकों का ज्ञान वर्धन किया है विशेषकर गुजरात से बाहर के लोगों का।
October 1, 2008 at 00:29
अजय जी,
आपका ब्लाग अच्छा लगा। और किसी शहर में अनिच्छा से आने की मजबूरी और वहां मामूली काम के लिए लंबे समय तक रुकने की तकलीफ का बेहतरीन वर्णन पढने को मिला। अहा जिंदगी के बारे में आपको पता ही होगा कि भास्कर ग्रुप की सकारात्मक जिंदगी से जुडी बडी पापुलर मैगजीन है जिसके संपादक- श्री यशवंत व्यास से पिछले दिनों हम और आप साथ साथ मिले थे।
October 1, 2008 at 00:42
प्रिय ज्ञान जी / जगदीश जी,
हौसला अफजाई के लिये धन्यवाद।
October 4, 2008 at 16:49
Hi! Sorry, don’t know how to post hindi text.
However, it was an nice artistic discription of a city in the state which constantly makes to the headlines for its progressive spirit. Hope to hear more from you.
Keep up the work!
Amal