एक मित्र है डा. ज्ञान पाठक, पेशे से पत्रकार और समझ से दार्शनिक एवं डा. की उपाधि चिकित्सक वाली नही वरन डाक्ट्रेट वाली है. अब इन तीनो चीजों (पत्रकारिता, डाक्ट्रेट और दर्शनशास्त्र) का संगम होगा तो सब कुछ अलग हट कर ही होगा. सो इनका दर्शन भी हट कर है.
अब पिछले हफ्ते मिले तो मै फेसबुक पर लगा था, अपने मित्रों की खोज खबर लेने. देखते ही बोले, “अरे, आप भी फंसेबुक में फंसे है??” मै थोडा गडबडा गया. कहा, “ज्ञान जी फंसेबुक नही फेसबुक”. वो बोले, “नही अजय जी, यह फेसबुक नही फंसेबुक ही है. जो एक बार इससे जुड गया वो फंस गया. दिन भर-रात भर इसी पर लगे रहते है, सब काम धन्धा भुला कर”. मैने कहा, “यह तो प्रयोग करने वाले पर निर्भर करता है कि वो इसमें कितना समय देता है”. इस पर ज्ञान जी बोले, “गूगल पर जाकर ‘facebook killing your relationship’ सर्च कीजिये. आपको 8500 से ज्यादा परिणाम मिलेंगे. पति-पत्नी एक दुसरे से ज्यादा फेसबुक को समय देते है. इसका प्रभाव उनकी वैवाहित जिन्दगी पर भी पड रहा है. आज की तारीख में सैकडों मनोवैज्ञानिक फेसबुक के इसी पहलू से त्रस्त जोडों का इलाज कर अपनी रोजी-रोटी कमा रहे है. तो हुआ ना यह फंसेबुक”.
अब उनका यह तर्क सुनकर मै तो निरूत्तर हूँ. आपके पास है कोई जवाब?
अति सर्वत्र वर्जयेत!
@ ज्ञान जी: एकदम पते की बात.
बहुत अधिक ज्ञान अर्जित करने के प्रयास में आप ज्ञान का अंग बन जाते हैं, ज्ञानी नहीं ।
I M AGREE 4 UR STATEMENT SIR
But I like face book. Its depends on us how we use social site for our betterment or for social connecting or for masti or for killing our relations. So use it according your moto.
jaha halla hai waha Allah nahi,jaha Allah hai waha halla nahi
इसे नए युग की संक्रामक रोग की संज्ञा दी जा सकती है. अब तो फेसबुक के कारण लोग आत्महत्या तक करने लगे है.
BILKUL SAHI BAAT. MAGAR EK NIRDHARIT SAMAY KAR LENA CHAHIYE KI NET PAR KAB SE KAB TAK BAITHNA HAI.