आजकल फेसबुक (या फंसेबुक) से वास्ता काफी कम हो गया है. होली – दीवाली ही इस बुक को खोलना होता है. ऐसे ही आज खोला तो एक जानकार ने अपनी भावनाओ को कुछ इस तरह से व्यक्त किया हुआ था:
क्युँ तेरे बिन सब्र कर लेते है हम
दीवानो सी बेसब्री से मरते है हर पल
कुछ यूँ तेरे बिन सब्र कर लेते है हम.
पढ कर दिल मे कुछ-कुछ होने लगा. तभी मेरे जानकार के किसी जानकार ने इस पर कुछ इस तरह कमेंट किया:
मत पुछ मेरे सब्र की इंतहा कहां तक है..
तु सितम कर ले तेरी ताकत जहा तक है..
वफा की उम्मीद जिन्हे होगी, उन्हे होगी..
हमें तो देखना है तु जालिम कहां तक है!
अब तो अपन के दिल का कुछ-कुछ, बहुत कुछ हो चुका था. और कुछ इस तरह से अपन की भी भावनाएं बह निकली:
दीवानगी में सब्र कहाँ बेसब्र होता है!
दुर कहीं नही, मेरा माशुक तो हर दम दिल में बसा होता है!!
आपकी राय दीवानगी के बारे में क्या है?
चित्र साभार: http://vijaygiripoet. blogspot.in/2012/03/ blog-post_04.html